आदिवासी अस्मिता का प्रतीक 300 साल पुराना भोंपू, आज भी जोभी सिमरा गांव में संरक्षित

हजारीबाग। झारखंड की आदिवासी संस्कृति में कई प्राचीन परंपराएं और वाद्य यंत्र शामिल हैं, जो अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। हजारीबाग जिले के टाटीझरिया प्रखंड के जोभी सिमरा गांव में आज भी एक अनोखा वाद्य यंत्र “भोंपू” संरक्षित है, जिसकी उम्र करीब 250 से 300 साल बताई जाती है। गांव के तालो सोरेन और हीरालाल मुर्मू के पास यह वाद्य यंत्र मौजूद है। इसे स्थानीय लोग भोंपू, सींगा या सींगा बाजा के नाम से जानते हैं। इसे जंगली भैंसा, काड़ा या नीलगाय के सींग से तैयार किया जाता है। तालो सोरेन का कहना है कि यह उनके परिवार में पांच पीढ़ियों से संरक्षित है और इसे बजाने में काफी मेहनत लगती है, क्योंकि इसमें लगातार मुंह से हवा फूंकनी पड़ती है। भोंपू सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समाज के आंदोलनों, विशेष आयोजनों और उलगुलान (विद्रोह) की आवाज बुलंद करने का भी माध्यम रहा है। गांव में इसे पशु भगाने और समुदाय को एकत्रित करने के लिए भी बजाया जाता था। हीरालाल मुर्मू के अनुसार, इस भोंपू पर पीतल का घेरा है जिस पर कुछ अक्षर खुदे हैं, जो संभवतः कैथी लिपि में हैं। उनका दावा है कि पूरे इलाके में अब सिर्फ दो ही लोगों के पास यह वाद्य यंत्र मौजूद है। विशेषज्ञों का मानना है कि भोंपू या सींगा झारखंड ही नहीं, बल्कि असम और पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समाज में भी प्रचलित रहा है।
संस्कृति और कला के जानकारों का कहना है कि ऐसे दुर्लभ वाद्य यंत्र हमारी प्राचीनता और पहचान हैं। सरकार और समाज को मिलकर इन धरोहरों को संरक्षित करने की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस अनमोल विरासत से जुड़ सकें। यह भोंपू सिर्फ वाद्य यंत्र नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता का प्रतीक है।

Bishwjit Tiwari
Author: Bishwjit Tiwari

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