भाजपाई लोग अब माँ”जैसे पवित्र शब्द को भी चुनावी हथियार बना कर वोट लेने का कुत्सित प्रयास कर जनता को ठगने का कार्य कर रही है जो देश के लिए और लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।


विजय शंकर नायक

भाजपाई नेताओ के हालिया बयान एवं भाजपा की वर्तमान मे की जा रही राजनीति पर आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच के केंद्रीय उपाध्यक्ष सह पूर्व विधायक प्रत्याशी विजय शंकर नायक ने तीखी प्रतिक्रिया करते हुए कहा कि अब भाजपा की राजनीति मां जैसे शब्दो पर अटक गई है । जनता के असली मुद्दे – जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य – हाशिये पर चले गए है । भाजपा के पाखंड पर तीखा प्रहार करते हुए कहा कि अब “भाजपा ‘माँ’ जैसे पवित्र शब्द को वोट की गंदी सियासत का हथकंडा बनाकर जनता को बेवकूफ बना रही है। भाजपा आज जनता के बुनियादी सवालो पर अपने जुबान मे ताला लगा चुकि है , लेकिन माँ के नाम पर ड्रामा जोरों पर। यह घृणित दोहरापन लोकतंत्र को शर्मसार करता है।”

श्री नायक ने आगे कहा कि यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राजनीति अब इतने व्यक्तिगत हमलों पर उतर आई है जहाँ “माँ” जैसे पवित्र शब्द को भी चुनावी हथियार बना दिया जाय ? माँ का सम्मान सभी संस्कृति में सर्वोपरि माना जाता है, लेकिन जिस तरह भाजपा के लोग इसे वोट की राजनीति के तौर पर लाभ-हानि से जोड़ने मे लगे हुए हैं, वह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। इन्होने यह भी कहा कि किसी भी माँ के लिए अपशब्द स्वीकार्य नहीं किए सकते। लेकिन भाजपाई नेताओ के आरोपों से यह भी साफ है कि राजनीति में “दोहरे मानदंड” हावी हो रहे हैं। जब भाजपा के नेता विपक्षी परिवारों पर कीचड़ उछालते हैं, तब उनकी नैतिकता कहाँ मर जाती है? जब भाजपा के नेताओं के द्वारा महिलाओं और विपक्षी परिवारों पर अभद्र टिप्पणियाँ कीं जाती है , तब सत्तापक्ष की ओर से कोई संवेदनशीलता नहीं दिखाई जाती है । माँ का सम्मान हर भारतीय की रगों में है, लेकिन इसे सत्ता की सीढ़ी बनाना नीचता है।” नायक ने ललकारते हुए कहा, “यह भाजपा की ओछी सियासत अब बंद होनी चाहिए ! माँ प्रेम का प्रतीक है, इसलिए मां के नाम पर वोट की सौदागरी नहीं की जानी चाहिए। भाजपा के द्वारा जनता के सवालों से मुंह मोड़ने की चाल अब बेनकाब हो चुकि है । अब नेताओं को आत्ममंथन कर लोकतंत्र की मर्यादा बचानी होगी, वरना जनता का भरोसा रौंदा जाएगा।”
श्री नायक ने आगे कहा कि लोकतंत्र की ताकत उसकी गरिमा और संवाद की संस्कृति में है। यदि राजनीतिक संवाद व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित हो जाएगा तो जनता के असली मुद्दे – जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य – हाशिये पर चले जाएंगे और भाजपा यही चाहती भी है कि जनता के बुनियादी सवालो पर चुनाव ना हो । अब समय आ गया है कि सभी पार्टी के नेतागण चाहे सत्तापक्ष के हो या विपक्ष के सभी पार्टी के नेताओ को अब आत्मचिंतन करना चाहिए। माँ शब्द केवल चुनावी भाषणों का हिस्सा नहीं, बल्कि समाज में संवेदनशीलता, करुणा और सम्मान का प्रतीक है। यदि नेता इस शब्द को राजनीतिक हथियार बनाएँगे तो जनता का विश्वास और राजनीति की मर्यादा दोनों ही तार तार हो जाएंगे। आज इस बात की ज़रूरत है कि देश के सभी पार्टी के नेता अपनी भाषा में संयम बरतें और मतभेदों को विचारों और नीतियों के स्तर पर रखें, न कि परिवार और व्यक्तिगत जीवन पर।


लेखक विजय शंकर नायक आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच के केंद्रीय उपाध्यक्ष है।

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