झारखंड में कुड़मी आंदोलन :भाजपा से मोहभंग या तीसरे मोर्चे की हो रही है पृष्ठभूमि तैयार?

झारखंड की राजनीति में इन दिनों कुड़मी आंदोलन ने नई हलचल पैदा कर दी है। अनुसूचित जनजाति (एसटी) दर्जे की मांग को लेकर शुरू हुआ यह आंदोलन अब केवल सामाजिक न्याय की लड़ाई नहीं रह गया है — यह राज्य के राजनीतिक समीकरणों को भी बदलने की क्षमता रखता है।
“रेल टेका — डहर छेका” के नारे के साथ सड़कों और पटरियों पर उतरता कुड़मी समाज, अब धीरे-धीरे एक राजनीतिक शक्ति केंद्र के रूप में उभर रहा है। सवाल यह है — क्या यह आंदोलन भाजपा से अलग होते हुए राज्य में तीसरे मोर्चे की नींव रख सकता है?

झारखंड में कुड़मी (या कुर्मी-महतो) समुदाय पारंपरिक रूप से भाजपा और उसके सहयोगी दल ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (AJSU) के साथ जुड़ा रहा है।
2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों में यह समुदाय भाजपा के लिए निर्णायक साबित हुआ। संथाल परगना, चाईबासा, बोकारो, सरायकेला-खरसावां, चंदनकियारी और चाकुलिया जैसे इलाकों में इस वर्ग का झुकाव भाजपा की जीत का प्रमुख आधार रहा।

लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। एसटी दर्जे की मांग पर केंद्र सरकार और राज्य दोनों की धीमी प्रतिक्रिया ने इस समुदाय के भीतर नाराज़गी की लहर पैदा कर दी है।
भाजपा के नेताओं की चुप्पी और आश्वासनहीनता को आंदोलनकारी कुड़मी “वोट के समय याद करने वाली राजनीति” के रूप में देख रहे हैं।

आंदोलन से उठती नई राजनीतिक संभावनाएँ

  1. तीसरे मोर्चे की नींव:
    कुड़मी समाज के नेतृत्व में यदि आंदोलन को संगठित राजनीतिक रूप मिलता है, तो यह झारखंड में तीसरे मोर्चे की रूपरेखा बना सकता है।
    झारखंड में पारंपरिक रूप से राजनीति दो ध्रुवों — भाजपा गठबंधन और झामुमो-कांग्रेस गठबंधन — के इर्द-गिर्द घूमती रही है।
    लेकिन एसटी दर्जे की मांग को लेकर दोनों ही गठबंधनों का अस्पष्ट रुख कुड़मी समुदाय को एक नए राजनीतिक ठिकाने की तलाश में धकेल सकता है।
  2. JLKM और AJSU की भूमिका:
    झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (JLKM) और AJSU पहले से इस वर्ग में अपनी जड़ें जमाए हुए हैं।
    JLKM आंदोलन को वैचारिक दिशा दे सकता है, जबकि AJSU के पास संगठनात्मक ढांचा और जनाधार है।
    यदि दोनों में रणनीतिक तालमेल बन जाए, तो यह भाजपा के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगाने वाला कारक बन सकता है।फिलहाल यह तालमेल नही दिख रहा लेकिन संभावनाओ से इनकार नही किया जा सकता है।
  3. संथाल परगना और कोल्हान पर असर:
    ये दोनों इलाके झारखंड की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यहां कुड़मी और आदिवासी समाज का मिश्रित प्रभाव है।
    यदि कुड़मी समुदाय संगठित रूप से भाजपा से दूर हुआ, तो इसका सीधा असर भाजपा के 10–15 विधानसभा सीटों पर पड़ सकता है।

भाजपा के लिए यह स्थिति दोहरी चुनौती है —
एक ओर उसे कुड़मी समाज की नाराजगी को शांत करना है, दूसरी ओर आदिवासी वर्ग को यह विश्वास दिलाना है कि भाजपा उनके हितों की रक्षक है।
केंद्र सरकार यदि कुड़मी समाज को एसटी सूची में शामिल करने की दिशा में ठोस पहल करती है, तो आदिवासी संगठनों से विरोध बढ़ सकता है; और यदि नहीं करती, तो कुड़मी वर्ग पूरी तरह से नाराज हो सकता है।
यह “दो पाटों के बीच फंसी राजनीति” भाजपा को 2029 के विधानसभा चुनाव में भारी नुकसान पहुँचा सकती है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आने वाले वर्षों में झारखंड में तीसरा मोर्चा — “आदिवासी एवं कुड़मी गठबंधन” आकार ले सकता है।
यदि यह गठबंधन क्षेत्रीय आकांक्षाओं और सामाजिक असंतोष के आधार पर खड़ा होता है, तो झारखंड की पारंपरिक द्विध्रुवीय राजनीति को चुनौती मिल सकती है।
संभावना है कि कुछ छोटे दल, बुद्धिजीवी संगठन, और स्वतंत्र नेता इस नए समीकरण के साथ जुड़ें।

यह आंदलोन राष्ट्रीय राजनीति पर भी असर डाल सकती है कुड़मी समाज न केवल झारखंड, बल्कि बंगाल और ओडिशा में भी प्रभावशाली है।
यदि यह आंदोलन लंबा चला और उसे राजनीतिक रूप मिला, तो यह तीनों राज्यों में भाजपा की रणनीति को प्रभावित कर सकता है।
खासकर बंगाल में जहां भाजपा ओबीसी समुदायों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रही है, वहां कुड़मी आंदोलन नई चुनौती पेश करेगा।

झारखंड की राजनीति एक बार फिर सामाजिक आंदोलनों की दिशा में मुड़ रही है।
कुड़मी आंदोलन अब केवल जातीय पहचान का संघर्ष नहीं, बल्कि राजनीतिक पुनर्संतुलन का प्रारंभिक संकेत बन चुका है।
यदि भाजपा इस असंतोष को समय रहते नहीं संभालती, तो यह आंदोलन उसे उसके ही पारंपरिक वोट बैंक से दूर कर सकता है।

आने वाले महीनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कुड़मी समाज वास्तव में भाजपा से कटकर “तीसरे मोर्चे” का नेतृत्व करता है,
या फिर भाजपा अपनी रणनीति बदलकर उन्हें वापस अपने पाले में लाने में सफल होती है यदि तीसरा मोर्चा बनी तो उसका सीधा फायदा झारखंड मुक्ति मोर्चा और उनके गठबंधन को फायदा मिलेगा। साथ ही एक बात तय है की कुड़मी आंदोलन झारखंड की राजनीति में नई करवट का सूचक बन चुका है।

(लेखक वर्किंग जर्नलिस्ट ऑफ इंडिया झारखंड इकाई के अध्यक्ष है)

Bishwjit Tiwari
Author: Bishwjit Tiwari

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